आयुर्वेद: Difference between revisions

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धर्म और आयुर्वेद के रहस्य...
'''आयुर्वेद''' आयुयागु [[वेद]] अर्थात आयुयागु ज्ञान खः। गु शास्त्र नं आयु यागु ज्ञान बी, व हे शास्त्र आयुर्वेद खः। म्ह, इन्द्रिय सत्व, व आत्मा यागु संयोगयु नां आयु खः। प्राण नं युक्त म्हयात जीवित धाइ। आयु और शरीर का संबंध शाश्वत है। आयुर्वेद में इस सम्बन्ध में विचार किया जाता है। फलस्वरुप वह भी शाश्वत है। जिस विद्या के द्वारा आयु के सम्बन्ध में सर्वप्रकार के ज्ञातव्य तथ्यों का ज्ञान हो सके या जिस का अनुसरण करते हुए दीर्घ आशुष्य की प्राप्ति हो सके उस तंत्र को आयुर्वेद कहते हैं, आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। यह मनुष्य के जीवित रहने की विधि तथा उसके पूर्ण विकास के उपाय बतलाता है, इसलिए आयुर्वेद अन्य [[चिकित्सा]] पद्धतियों की तरह एक चिकित्सा पद्धति मात्र नही है, अपितु सम्पूर्ण आयु का ज्ञान है, इस आयुर्वेद में आयु के हित (पथ्य, आहार, विहार) अहित (हानिकर, आहार, विहार) रोग का निदान और व्याधियों की चिकित्सा कही गई है। हित आहार, सेवन एवं अहित आहार, त्याग करने से मनुष्य पूर्ण रुप से स्वस्थ रह सकता है। स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन के चरम लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। पुरुषार्थ चतुष्टयं की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है अतः उसकी सुरक्षा पर विशेष बल देते हुए आयुर्वेद कहता है कि धर्म अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है। सम्पूर्ण कार्यों विशेष रुप से शरीर की रक्षा करना चाहिए।
अमृतम पत्रिका, ग्वालियर मप्र से साभार....
 
आज का धर्म सब कुछ पा लेने की लालसा है। मूल धर्म है-रक्षति देह: अपने शरीर की रोगों से रक्षा करना।
समस्त झगड़े की जड़ धर्म है। प्राचीनकाल से मानव को मत, सिद्धान्त, विश्वास बेचा गया है। ये सब झूठे हैं। आज दुनिया में ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो व्यक्ति का खुद से साक्षात्कार करा सके। शान्ति दे सके।
लगभग समस्त धर्म डराने के लिए बने हैं। धर्म कहता है, पहले स्वयं को समझो, जानो-पहचानो।
मानव मस्तिष्क का सेतु शिवलिंग है। यह मनुष्य का प्रतीक है। शिव सहिंता के अनुसार महादेव मस्तिष्क का प्रतीक है।
लोगों की भूल है कि भगवान मन्दिर में हैं। हम पत्थर को भगवान मानकर खुद पत्थर बनते चले जाते हैं।
अपने को जानना, सकारात्मक विचार और मन को शांति सबसे बड़ी पूजा है।
धर्म का अर्थ है- आत्मा में शान्ति धारण करना। एकनिष्ठ भाव से अपनी नाभि पर ध्यान लगाना।
कृष्णभक्त मीरा बाई ने लिखा कि-
घूंघट के पट खोल रे, तोहे पिया मिलेंगे।
यह किस घूंघट के बारे में बता रही है। यह मंदिर, बाजार, चर्च, चारों धाम आदि तीर्थो पर तो मिलेगा नहीं।
दरअसल यह आंखों का पर्दा है, जब तक यह नहीं हटेगा सब भटकते रहेंगे।
एक सूफी भजन सभी ने सुना होगा कि-
जलवा-ए-हुस्न दिखा जाओ तो कुछ बात बने,
मेरी आंखों में समा जाओ, तो कोई बात बने।
आपकी शक्ल नज़र आती है धुंधली धुंधली,
पर्दा नजरों से हटा जाओ तो कुछ बात बने।
सत्यम शिवम सुन्दरम….
सत्य को जानना सबसे बड़ा धर्म है, जो जीवन में सत्य का अनुभव नहीं कर पाता, उसका जीवन दुख की एक कथा है। उसकी जिंदगी चिंताओं और अशांतियों से ज्यादा नहीं हो सकता है। सत्य के बिना न तो कोई शांति है, न कोई आनंद है। और हमें सत्य का कोई भी पता नहीं है। सत्य तो दूर की बात है, हमें स्वयं का भी कोई पता नहीं है।
जीवन में जहां सत्य है, वही सुंदरता है और शिव का वास भी यही है। धर्म-धन के फेर में सब गुमराह हो रहे हैं।ईनके कारण प्राणी दिन-प्रतिदिन विकृत से विकृत होता जा रहा है, उसकी संस्कृति और संस्कार नष्ट हो रहे हैं, उसके पास समृद्धि की शक्ति तो बढ़ रही है लेकिन शांति विलीन हो रही है। बाहरी सम्पदा में वृद्धि हो रही है किंतु भीतर की दरिद्रता भी बढ़ती जा रही है। आज दुनिया में मानसिक अशांति की वजह से 58 फीसदी लोग अवसादग्रस्त हैं।
अगर शास्त्रों की संगत करें, तो समझ आएगा कि- सबसे बड़ा धर्म है… देह की सुरक्षा। जिसने शरीर को साध लिया वही सच्चा साधक है, वही धार्मिक है।
एक छोटी सी बात समझने की है कि हम किसी से कोई वस्तु लेते हैं या कोई विश्वास छोड़ जाता है, तो हमारा फर्ज है हम उसे वैसे ही लौटाएं।
हमारा जन्म होता है। प्रकृति हमें हर प्रकार से रोगरहित, निश्छलता तथा सम्पूर्णता के साथ भेजती है और हम मरते समय हजारों रोग-विकार लेकर वापस जाते हैं।
 
 
 
जानिये आयुर्वेदिक दोषों के बारें में …
Learn about Ayurvedic Doshas
“ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया”
“आचार्य महाप्रज्ञ” ने खोजा कि
हम संसार में विकार रहित आते हैं
और विकार से भरकर अपना विनाश कर लेते हैं ।
प्राणी में अपने प्रति, अपने दोषों के प्रति
जागरूकता का कोई भाव नहीं है ।
व्यक्ति हमेशा मूर्च्छा में जीता है, इस लापरवाही के कारण तन में त्रिदोष (वात,पित्त,कफ) विषम हो जाते हैं।
जाने क्या है- वात-पित्त-,कफ यानि त्रिदोष….
अमृतम आयुर्वेद में कफ,पित्त,वायु
की विषमता को त्रिदोष कहते हैं ।
वर्तमान में जीना
त्रिदोष से मुक्त होने हेतु आचार्यों ने
निर्देश दिया है कि वर्तमान में जीने
का अभ्यास करना चाहिए ।
यह वही व्यक्ति जी सकता है,
जो अपने दोषों के प्रति जागरूक होता है।
जागरूक वही रहेगा, जो खुद को जान पायेगा।
वर्तमान विज्ञान मानता है कि त्रिदोष, शारीरिक दोषों से
रहित तन-मन में जागरूकता का भाव उत्पन्न होता है ।
जागरूकता की सबसे बाधा है–मूर्च्छा।
“उपाध्याय मेघविजय” ने इसका शरीरशास्त्रीय
कारण बताते हुए लिखा है —-
रक्ताधिकयेन पित्तेन
मोहप्राकृतयो खिला:।
दर्शनावर्णम रक्त कफ
सांकरयसम्भवम ।।
अर्थात जब रक्त में दोष आता है,रक्त की अधिकता औऱ पित्त दोनों मिल जाते हैं, तब मोह की सारी प्रकृतियाँ प्रकट होने लगती हैं। ये मुर्च्छाएँ, तब सामने आती हैं जब पित्त का प्रकोप औऱ रक्त की अधिकता होती है ।
मोह-माया की मलिनता…
मोह की जितनी प्रकृतियां हैं, उतनी ही मुर्च्छाएँ हैं ।
जितनी वृत्तियां हैं, उतनी ही संज्ञाएँ और आवेग हैं ।
शरीर मनोविज्ञान ने चौदह मौलिक वृत्तियां मानी हैं ।
“मोह–कर्म” की 28 प्रकृतियां हैं ।
“पंतजलि” ने 5 वृत्तियां बतलायी हैं।
दस संज्ञाएँ होती हैं। उन सबमें नामों में भेद हो सकता है, पर मूल प्रकृति सबकी एक है।
**विकारों की वृत्तियां…**
अमृतम आयुर्वेद के वेदाचार्य बताते हैं—
1- पित्त की वृद्धि से प्राणी मूर्च्छित होता हैं—
2- वात-वृद्धि से विवेक लुप्त होता है —
3- कफ वृद्धि संज्ञा को सुप्त करता है ।
हमारी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि हम जानते सब हैं, पर प्रयोग,अभ्यास करते कुछ नहीं ।
अभ्यास पहली आवश्यकता है ।
दूसरी बात है —–रुक गए,तो कुछ नहीं–**
दृढ़ निश्चय-पक्का इरादा! जरूरी है—
"राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त”
ने अपने संस्मरणों में लिखा है—
मैंने साहित्य रचना आरम्भ की। मेरा निश्चय,दृढ़ सकंल्प था कि मैं साहित्यकार बनूंगा,पर मेरी कविताएं कोई छापने को राजी न हुआ । मैंने 10 वर्षों में केवल ₹700 रुपये कमाए। खेती-बाड़ी,मजदूरी से घर खर्च चलाया, लेकिन “रचनाएं“ लिखता रहा और एक दिन मेरा नाम साहित्यकारों की सूची में आ गया।
में खुद भी कोई लेखक नहीं हूँ। केवल प्रयास, अभ्यास, प्रवास और अन्तर्मन का आभास के सहारे यह कठोर नियम बनाया कि रोज कोई भी एक किताब पढ़कर उसके बारे में 5 से 7 पेज रजिस्टर में लिखना। इसी से लेखनी में दिनोंदिन सुधार होता गया।
आज अमृतम पत्रिका के 4000 से ज्यादा लेख गूगल पर उपलब्ध हैं। कहते हैं कि-
मान लो तो हार है, ठान ले तो जीत है।
हमारा कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है। जबवप व्यस्त रहेंगे, तो मस्त रहेंगे। अच्छा मूड, शांत मन एवं मस्ती सबसे बड़ा धर्म है। हम कुकर्मों से दुर् रहें, तो यह भी एक धर्म ही है।
 
श्री मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी जीवन कथा में लिखा है-पल-प्रतिपल संघर्ष की खोज करो, रोज करो। अभ्यास और दृढ़ निश्चय से मूर्च्छा टूटकर जागरूकता बढ़ जाती है।
भगवान महावीर ने कहा…
इसी से “**जिओ और जीने” **का सूत्र उपलब्ध होता है ।
अमृतम जीवन का मन्त्र है-
**बीती ताहिं बिसार दे, आगे की सुधि लेह ।**
जो कोई भी पुराना भूलकर, वर्तमान में जीना प्रारम्भ कर देता है, वह अतीत के पाप की चादर धो देता है तथा
***ज्यों की त्यों धरदीन्ही चदरिया***‘ !
“कबीर” की इस उक्ति को सार्थक कर देता है ।
**स्वास्थ्य वर्द्धक सलाह**
स्वस्थ्य रहने का दूसरा उपाय यह है कि
()- मन की चंचलता को कम करें
()- स्थिरता को बढ़ायें ।
()- वात,पित्त,कफ को सन्तुलित रखते हुए, त्रिदोष के प्रकोप को कम करें।
आयुर्वेद के नियमानुसार देह में त्रिदोष के प्रकोपित होने से अनेक उदर रोग पनपने लगते हैं। अतः त्रिदोष की चिकित्सा जरूरी है।
अमृतम ने आयुर्वेद के योग्य,
विद्वान और वरिष्ठ वेदों-चिकित्सकों द्वारा एक बेहतरीन पुस्तक प्रकाशित की है। इस किताब का नाम
**Ayurveda Life Style** है,
जो कि ओनली ऑनलाईन ही उपलब्ध है।
असन्तुलित वात-पित्त-कफ अर्थात त्रिदोषों की जांच स्वयं अपने से करने के लिए यह अंग्रेजी की किताब आयुर्वेदा लाइफ स्टाइल
यह आपकी बहुत मदद करेगी। इसमें उपाय भी बताएं हैं। अपनी लाइफ स्टाइल बुक का अध्ययन तथा अमल कर सदैव स्वस्थ्य रह सकते हैं।
 
अमृतम ग्लोबल Amrutam.globle
की वेबसाइट पर सर्च करके आप आयुर्वेद के जाने-माने योग्य स्त्री-पुरुष रोग विशेषज्ञ आदि अनुभवी चिकित्सकों से ऑनलाइन सलाह ले सकते हैं।
 
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अपनी तासीर के मुताबिक निम्नलिखित क्वाथ आपको स्वस्थ्य और सुखी बनाने में मदद करेंगे।
【1】कफ की क्वाथ 【कफविनाश】
【2】वात की क्वाथ 【वातरोग नाशक】
【3】पित्त की क्वाथ 【पित्तदोष सन्तुलित करने में विशेष उपयोगी।
【4】डिटॉक्स की क्वाथ 【शरीर के सभी दुष्प्रभाव, साइड इफ़ेक्ट मिटाता है】
यह क्वाथ सभी तरह की डाइबिटीज पीड़ितों के लिए बहुत मुफीद है।
【5】बुद्धि की क्वाथ 【मानसिक शांति हेतु】
उपरोक्त ये पांचों क्वाथ तासीर अनुसार सर्वरोग नाशक और देह को तन्दरुस्त बनाने में सहायक हैं।
यह जड़मूल से रोगों का नाशकर रोगप्रतिरोधक क्षमता यानि इम्युनिटी को तेजी से बढ़ाते हैं।
केवल ऑनलाइन उपलब्ध है-
सर्च करें-amrutam
“अमृतम आयुर्वेद के आचार्यों”
ने बताया कि रोग **मन द्वारा मस्तिष्क** में औऱ **मस्तिष्क से तन **में प्रवेश करते हैं। मन के दरवाजों के खुला रखना दुःख का कारण है औऱ उन्हें बन्द कर देना सुख का साधन है। वेदान्त में भी कहा गया है कि स्वस्थ शरीर ही संसार का सुख औऱ मोक्ष का हेतु है।
विज्ञान के विचार
आज के वैज्ञानिकों की माने, तो हमारी सारी बीमारी-वृत्तियों का कारण बतलातें हैं—-
@ग्रंथियों का स्राव ।
@जैसी सोच-वैसी लोच ।
द्वेष-दुर्भावना, जलन आदि कुंठित विचारों से रस-रक्त नाड़ियां कड़क होकर शरीर की अवयवों) व कोशिकाओं को शिथिल कर देती है।
अच्छी सोच का प्रभाव अनेकों दुष्प्रभाव मिटाकर
अभाव दूर करने में सहायक है। पॉजिटिव सोच से तन में लोच आने लगती है।
भाव पूर्ण विचार तथा हमारा शुद्ध चरित्र ही सबसे बड़ा मित्र है, जो तन को इत्र की तरह महकाता है।
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बहुत जरूरी बात-
यह है कि सदैव स्वस्थ्य-तन्दरुस्त रहने के लिए
“पित्त के प्रकोप” से बचें। यही बीमारी का बहुत बड़े वजह है।
के बारे में एक दुर्लभ जानकारी अमृतम पत्रिका, गूगल, विकिपीडिया पर मिलेगी।
पित्त के बिगड़ने से अनेकों असाध्य व खतरनाक रोग होते हैं। आप सरल शब्दों में समझ सकेंगे ।
 
'''आयुर्वेद''' आयुयागु [[वेद]] अर्थात आयुयागु ज्ञान खः। गु शास्त्र नं आयु यागु ज्ञान बी, व हे शास्त्र आयुर्वेद खः। म्ह, इन्द्रिय सत्व, व आत्मा यागु संयोगयु नां आयु खः। प्राण नं युक्त म्हयात जीवित धाइ। आयु और शरीर का संबंध शाश्वत है। आयुर्वेद में इस सम्बन्ध में विचार किया जाता है। फलस्वरुप वह भी शाश्वत है। जिस विद्या के द्वारा आयु के सम्बन्ध में सर्वप्रकार के ज्ञातव्य तथ्यों का ज्ञान हो सके या जिस का अनुसरण करते हुए दीर्घ आशुष्य की प्राप्ति हो सके उस तंत्र को आयुर्वेद कहते हैं, आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। यह मनुष्य के जीवित रहने की विधि तथा उसके पूर्ण विकास के उपाय बतलाता है, इसलिए आयुर्वेद अन्य [[चिकित्सा]] पद्धतियों की तरह एक चिकित्सा पद्धति मात्र नही है, अपितु सम्पूर्ण आयु का ज्ञान है, इस आयुर्वेद में आयु के हित (पथ्य, आहार, विहार) अहित (हानिकर, आहार, विहार) रोग का निदान और व्याधियों की चिकित्सा कही गई है। हित आहार, सेवन एवं अहित आहार, त्याग करने से मनुष्य पूर्ण रुप से स्वस्थ रह सकता है। स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन के चरम लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। पुरुषार्थ चतुष्टयं की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है अतः उसकी सुरक्षा पर विशेष बल देते हुए आयुर्वेद कहता है कि धर्म अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है। सम्पूर्ण कार्यों विशेष रुप से शरीर की रक्षा करना चाहिए।
 
== आयुर्वेदयु न्ह्यथनेज्या व विकास ==